पता नहीं इस बार हॉट विंटर है या फिर यादें



तुम्हें स्वेटर बुनना नहीं आता था पर तुमने बुनना सीखा था मेरे लिए....हां मेरे लिए....भले वो हाफ था पर पूरी बाजू वाली स्वेटर की तरह गर्मी देता है...अब जब तुम साथ नहीं हो और वो स्वेटर भी छोटा हो गया है पर उसकी गर्मी बढ़ गयी है...अब ज्यादा देर उसे पहन नहीं पाता हूं पता नहीं इस बार हॉट विंटर है या फिर यादें...

बिन पानि वाली बागमती



हे कनि लग आबि जाऊ ने, लहेरियासराय सं शुभंकरपुर अबैत-अबैत धौझन भ' जाइत अछि..
अहां के एतबो दूर आयल पार नहि लगैत अछि...कहि त काल्हि सं हम आबि जाए....छोड़ू इ गप्प के...सुनलिये जे दरभंगा में 14 जनवरी सं सिटी बस चलतै..तखन हम एकरा दरभंगाक मेट्रो बुझी घुमैत रहब..की दरभंगा में सिटी बस चलला सं दरभंगा में शहरियत बढ़तै ?
हाहाहा....ठीक तहिना बढ़ते जेना किनको पाइ भेला पर इंसानियत बढ़ी जाइत अछि..
इ लिय' अहांक बिन पानि वाली बागमती आबि गेल, जौं कतौ पानि देखा रहल अछि त' ओ पानि नहि प्रदूषण छै
ओ हमरा बागमती देखाबैत रहती आ हम हुनका देखैत रहतौ..

एकतरफा जीना भी क्या जीना होता है ये उसे कौन समझाए



बारिशों में अक्सर निजामुद्दीन से जंगपुरा तक बारापुला ओवरब्रिज ने हमारे लिए छाते का काम किया था...अक्सर तुम ओवरब्रिज को पीछे छोड़ बारिश से साफ हो रहे दिल्ली को गन्दा करने निकल जाती...और हाथ ऐसे आगे बढ़ाती की हाथ को हाथ में लेने तक उन बूंदों का कब्ज़ा हो जाता था...और मैं उन बूंदों को दोनों हाथों तले उसे ऐसे सहेजता मानो इसे फिर देखेगा कौन...वैसे बात तो यही सही है की बूंदों को बूंदों से मिला देना चाहिए पर कुछ मामलात में हम इंसान बड़े लालची होते है...और मैं भी इंसान ही ठहरा...सम्भालता तो कब तलक और कैसे...आखिर सूख गया और कुछ असर कुछ तलक छोड़ गया जैसे सभी छोड़ते है...कुछ, कुछ देर तलक तो कुछ क्षणिक...आज फिर इन बारिशों ने पुरानी यादों पर पानी डाल उसे नवजीवन दे गयी...पर एकतरफा जीना भी क्या जीना होता है ये उसे कौन समझाए...

उसे नाइन एक्स एम देखना पसंद था और मुझे शैलेंद्र के गीतों से इश्क



कश्मीर और मैं बिहार...उसने अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी से पढ़ाई की थी और मैंने बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी से.....वो कांग्रेस सपोर्टर थी और मैं आरएसएस वाला....उसे सूरज की लालिमा प्यारी थी और मुझे चांद की शीतलता....उसे शहरों की उजली लाइट पसंद थी और मुझे दूर देहात की पीली रोशनी से प्यार था...उसे आइ फोन पसंद थे और मुझे नोकिया 2700 क्लासिक...उसे फेसबुक चलाना अच्छा लगता था और मुझे ट्विटर...उसे एसी की आदत थी और मुझे हथ पंखें की...उसे पिज़्ज़ा पसंद थे और मुझे भूजे...उसे स्कूटी चलाना पसंद था और मुझे पैदल चलना...उसे गुलाब की खुशुबू पसंद थी और मुझे मिट्टी की सौंधी सी महक...उसे प्यूमा के कपड़े अच्छे लगते और मुझे पालिका के...उसे बर्गर पसंद थे और मुझे गोलगप्पे...उसे नाइन एक्स एम देखना पसंद था और मुझे शैलेंद्र के गीतों से इश्क...दिक्कत ये सारी नहीं थी...दिक्कत ये थी की उसे मैं पसंद था और मैं भी उसे पसंद करने लगा था...

गर कानपुर जंक्शन नहीं होता तो हम अलीगढ़ तक तो साथ आ ही सकते थे



अब जब तुम दरभंगा से भोपाल चली गयी हो और मुझे राजधानी ने दिल्ली बुला लिया...कानपुर बहुत ही याद आता है...सोचता हूं अगर कानपुर जंक्शन नहीं होता तो हम अलीगढ़ तक तो साथ आ ही सकते थे...खैर अब जब तुम मध्य भारत में हो तो दिल करता है की देश की राजधानी भोपाल ही बना दूं और हम एक बार फिर कानपुर होते हुए दरभंगा के हो जाएं

तुम्हें अंधेरे से इश्क़ क्यों है ?



कभी साड़ी का आंचल
कभी दुप्पटा
तो कभी हिज़ाब
कभी बुर्का ही सही
तुम्हें अंधेरे से इश्क़ क्यों है ?
कभी स्वछंद हवा को आने तो दो खुद तक
मत तो दुहाई अपनी आज़ादी की
क्योंकि ये आज़ादी
कुछ दशकों बाद
बना दी जाती है गले की फांस
जब आदत बन जाती है परंपरा
फिर दुप्पटा और बुर्का बन जाती है नियति